Tuesday, October 22, 2019

कहानी तिरहुत रेलवे की, जिसके अवशेष अब ढूंढे न मिलेंगें

देश की पहली प्राइवेट ट्रेन 'तेजस एक्सप्रेस' की शुरुआत हो चुकी है.
लेकिन आज़ादी से पहले भारत में कई प्राइवेट रेल कंपनी चल रही थीं.
तिरहुत रेलवे उनमें से एक थी जिसे दरभंगा स्टेट चला रहा था.
1874 में दरभंगा के महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने तिरहुत रेलवे की शुरूआत की थी.
उस वक़्त उत्तर बिहार में भीषण अकाल पड़ा था.
तिरहुत रेलवे का सफ़र, भारत में रेलवे का सफ़र शुरू होने के दो दशक बाद यानी 1874 से शुरू हुआ. पूरे उत्तर बिहार में इसका जाल फैला हुआ था.
1875 में दलसिंहसराय से समस्तीपुर, 1877 में समस्तीपुर से मुज़फ़्फ़रपुर, 1883 में मुज़फ़्फ़रपुर से मोतिहारी, 1883 में ही मोतिहारी से बेतिया, 1890 में दरभंगा से सीतामढ़ी, 1900 में हाजीपुर से बछवाड़ा, 1905 में सकरी से जयनगर, 1907 में नरकटियागंज से बगहा, 1912 में समस्तीपुर से खगड़िया आदि रेलखंड बनाए गए.
बिहार के सोनपुर से अवध (उत्तरप्रदेश का इलाक़ा) के बहराइच तक रेल लाइन बिछाने के लिए 23 अक्तूबर 1882 को बंगाल और नार्थ वेस्टर्न रेलवे का गठन किया गया.
इस बीच 1886 में अवध के नवाब अकरम हुसैन और दरभंगा के राजा लक्ष्मीश्वर सिंह दोनों ही शाही परिषद के सदस्य चुने गए.
जिसके बाद 1886 में अवध और तिरहुत रेलवे में ये समझ बनी कि दोनों क्षेत्रों के बीच आना- जाना सुगम किया जाए.
बाद में 1896 सरकार और बंगाल और नार्थ वेस्टर्न रेलवे के बीच हुए एक करार के मुताबिक़ बंगाल और नार्थ वेस्टर्न रेलवे ने तिरहुत रेलवे के कामकाज को अपने हाथ में ले लिया.
राज परिवार से संबंध रखने वाली कुमुद सिंह कहती है, "दरअसल महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह किसानों की ज़मीन बेवजह रेलवे द्वारा अधिग्रहित किए जाने से नाराज़ थे इसलिए उन्होंने शाही परिषद, जो अब का राज्यसभा है, उसमें भूमि अधिग्रहण के लिए क़ानून बनाने का प्रस्ताव दिया. रेलवे के अंदर इस बात को लेकर नाराज़गी थी जो 1896 में नार्थ वेस्टर्न रेलवे द्वारा तिरहुत रेलवे के क़दम में दिखती है."
चूंकि रेल परिचालन जब शुरू हुआ तब गंगा नदी पर पुल नहीं बना था.
जिसके चलते यात्रियों को नदी के एक छोर से दूसरे छोर पर जाने के लिए स्टीमर सेवा उपलब्ध कराई गई थी.
तिरहुत स्टेट रेलवे के पास 1881-82 में चार स्टीमर थे जिसमें से दो पैडल स्टीमर 'ईगल' और 'बाड़' थे जबकि दो क्रू स्टीमर 'फ्लोक्स' और 'सिल्फ' थे.
ये स्टीमर बाढ़-सुल्तानपुर घाट के बीच और मोकामा-सिमरीया घाट के बीच चलते थे.
दरभंगा स्टेट ने दरभंगा में तीन रेलवे स्टेशन बनाए.
पहला हराही (दरभंगा) आम लोगों के लिए, दूसरा लहेरियासराय अंग्रेज़ों के लिए और तीसरा नरगौना टर्मिनल जो महाराज के महल नरगौना पैलेस तक जाता था.
यानी नरगौना पैलेस एक ऐसा महल था जिसके परिसर में रेलवे स्टेशन था. जो बाद में दरभंगा के ललित नारायण मिथिला विश्वविद्दालय के अधीन हो गया.
तिरहुत रेलवे के प्रोपराइटर और दरभंगा महाराज के सैलून में देश के सभी बड़े नेताओं ने यात्रा की.
इसमें देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णनन, मदन मोहन मालवीय से लेकर तमाम बड़े नेता शामिल थे.
दिलचस्प है कि सिर्फ़ गांधी ही ऐसे नेता थे जिन्होंने सैलून का इस्तेमाल कभी नहीं किया. उन्होंने हमेशा तीसरे दर्जे में ही यात्रा की.
तिरहुत रेलवे कंपनी के पास बड़ी लाइन और छोटी लाइन के लिए कुल दो सैलून या पैलेस ऑन व्हील थे.
इसमें चार डिब्बे थे. पहला डिब्बा बैठकखाना और बेडरूम था, दूसरा डिब्बा स्टॉफ़ के लिए, तीसरा डिब्बा पैंट्री और चौथा डिब्बा अतिथियों के लिए होता था.
सैलून की उपलब्ध तस्वीरों में नक्काशीदार बेड दिखता है जिसमें चांदी जड़ी हुई है और दरभंगा राज का प्रतीक चिन्ह 'मछली' उकेरी गई है.
इन सैलून में महाराज के लिए बने बेडरूम का नाम नरगौना सूट था वहीं महारानी के लिए बने सूट का नाम रामबाग सूट था.
इस सैलून के वॉशरूम में यूरोपियन कमोड और बाथटब लगा हुआ है.
बड़ी रेल लाइन का सैलून बरौनी (बेगूसराय) में रहता था जबकि छोटी लाइन का सैलून नरगौना टर्मिनल पर रहता था.
महाराज या जब उनके अतिथि को सफ़र करना होता था तो ये सैलून उन्ही ट्रेनों में जोड़ दिए जाते थे जिससे आम लोग यात्रा करते थे.
दरभंगा राज परिवार से संबंध रखने वाली कुमुद सिंह के मुताबिक़, "तिरहुत रेलवे पहली ऐसी कंपनी थी जिसने थर्ड क्लास या तीसरे दर्जे में शौचालय और पंखे की सुविधा दी थी. दरअसल गांधी जी जब तिरहुत रेलवे के पैसेंजर बनने वाले थे और ये तय था कि वो तीसरे दर्जे में यात्रा करेंगें तो दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह ने रेलवे को पत्र लिखा कि शौचालय की सुविधा होनी चाहिए. जिसके बाद तीसरे दर्जे में शौचालय बना जिसे गांधी जी के साथ साथ जनता ने भी इस्तेमाल किया. बाद में तीसरे दर्जे में पंखे भी लगे. यानी तिरहुत रेलवे ऐसा रेलवे था जो बेहद कम टिकट दरों पर जनता को बेहतर सुविधाएं देता था."
1950 में रेलवे का राष्ट्रीयकरण हुआ. लेकिन तस्वीरों में जो समृध्दि से भरे रेलवे के डिब्बे हमें दिखते है, उसके अवशेष भी अब न के बराबर बचे हैं.
स्थानीय पत्रकार शशि मोहन कहते हैं, "ये सब कुछ हम लोगों के देखते-देखते नष्ट हो गया. जबकि रेल लाइन जो तिरहुत रेलवे ने बिछाई उस का इस्तेमाल आज भी होता है. आप देखें कि दरभंगा सहरसा लाइन जो तिरहुत रेलवे की थी वो 1934 के भूकंप में नष्ट हुई, दोबारा कहां बनी? नतीजा आवागमन की दिक्क़त लोगों को आज भी है."
वहीं राज परिवार की कुमुद सिंह बताती है, "1973 में बरौनी में जो पैलेस ऑन व्हील खड़ा था उसमें लूटपाट करके आग लगा दी गई. वही 1982 में नरगौना में खड़े पैलेस ऑन व्हील को कबाड़ में बेच दिया गया. जिस कबाड़ी वाले को मिला, उसके परिवार ने कई किलो चांदी मिलने की बात भी बाद में कही. ऐसे में हमारे इतिहास, परंपरा को तो सरकारों ने नष्ट किया. और आज हालत ये है कि हम लोगों ने जो रेलवे का जनपक्षीय मॉडल अपनाया, उसको छीनकर सरकार जनविरोधी और महंगी रेल तेजस चला रही है. तेजस तो हमारे जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है."

Wednesday, October 9, 2019

الغارديان: "إجراءات ترامب في سوريا متهورة وخطرة"

تناولت الصحف البريطانية الصادرة الأربعاء عددا من القضايا العربية والشرق أوسطية من بينها قرار الرئيس الأمريكي دونالد ترامب الانسحاب من شمال سوريا، ومساعي تركيا إنشاء منطقة آمنة للاجئين السوريين شمال سوريا. كما تناولت الصحف الخروج الوشيك لبريطانيا من الاتحاد الأوروبي.
البداية من صحيفة الغارديان، التي جاءت افتتاحيتها بعنوان "إجراءات ترامب في سوريا تحمل بصمته، فهي متهورة وخطرة". وتقول الصحيفة إن الخسائر والضرر وقعا بالفعل، أيا كان مستقر السياسة الأمريكية إزاء سوريا في الأسابيع والشهور القادمة. وتقول إن الإعلان عن قرارين اتخذا بفارق ساعات ساعات يبرزان أسلوب ترامب الرئاسي: "شخصي، جاهل، ومشوش"، على حد قول الصحيفة، ومخاطر ذلك الأسلوب.
وتقول الصحيفة إن القرار الأول هو تصريح البيت الأبيض،عقب محادثة هاتفية مع الرئيس التركي رجب طيب إردوغان، وجاء مباغتا للجميع، بما في ذلك بعض المسؤولين في إدارة ترامب. ولم يكن القرار فقط إعلان الانسحاب المفاجئ للقوات الأمريكية من المناطق الشمالية الشرقية من سوريا، المتاخمة لتركيا، والتخلي عن القوات الكردية الحليفة للولايات المتحدة، ولكن أيضا إعطاء الضوء الأخضر لغزو تركي.
أما القرار الثاني، فكان في تغريدة، إثر رد غاضب جاء حتى من حزبه خشية إحداث المزيد من الفوضى في منطقة تعاني من عدم الاستقرار، ويقول إنه إذا "فعلت أنقرة ما أعتبره بحكمتي التي لا يمكن مضاهاتها خارجا عن المسموح، سأدمر وأمحو الاقتصاد التركي".
وتقول الصحيفة إن تركيا لا تميز بين القوات الكردية المتحالفة مع الولايات المتحدة شمال سوريا وبين المتمردين الأكراد داخل تركيا وسعت منذ أمد طويل للقضاء عليهم. وهي الآن تستعد لشن هجوم يُعتقد أنه سيزيد من شعبية أردوغان المتراجعة في الداخل. كما تسعى تركيا لنقل أعداد كبيرة من 3.6 مليون لاجئ سوري إلى المنطقة، محدثة تغييرا كبيرا في تركيبتها السكانية.
وتقول الصحيفة إنه حتى إن كان التوجه العام لسياسة ترامب متوقعا، فإن الإجراءات المفاجئة التي يتخذها وافتقارها لخارطة طريق أمور صادمة ومربكة. وتضيف إنه قد يمكن تجنب أسوأ السيناريهات المتخيلة، والتي تشمل كارثة إنسانية وإعادة ظهور تنظيم الدولة الإسلامية، وفقا للخطوات القادمة التي تأتي من إدارة ترامب.
وترى الصحيفة أن مخاطر القرارات المباغتة الصادمة لترامب قد تتزايد كلما اقتربت الانتخابات الأمريكية عام 2020 ومع تسارع وتيرة الخطوات المتخذة في التحقيق الذي يجريه الديمقراطيون بهدف عزل ترامب في نهاية المطاف.
وفي صحيفة فاينانشال تايمز نطالع تحليلا لورا باتيل من أنقرة ولكلويه كورنيش من بيروت بعنوان "منطقة آمنة في سوريا: الخطة التركية تنذر يشبح عودة تنظيم الدولة الإسلامية".
وتقول الصحيفة إن الرئيس الأمريكي قرر بصورة مفاجئة سحب القوات الأمريكية من شمال شرقي سوريا، محدثا الكثير من القلق في واشنطن وفي العواصم الأوروبية، وسط مخاوف من تأثير ذلك على مساعي التغلب على تنظيم الدولة الإسلامية.
وتقول الصحيفة إن شمال شرقي سوريا له أهمية خاصة، حيث يقع بين تركيا إلى الشمال والمناطق الصحراوية التي يصعب فرض السيطرة عليها في العراق، تلك المنطقة التي كانت حاضنة لتنظيم الدولة الإسلامية قبل اجتياحه الحدود العراقية عام 2015.
وتقول الصحيفة إن أجزاء كبيرة من شمال شرقي سوريا تسيطر عليها الأقلية الكردية، التي يشار إليها على أنها اكبر أقلية عرقية في العالم بلا دولة، والموزعة بين تركيا وسوريا والعراق وإيران. ولكن في سوريا، اغتنمت الجماعات الكردية اليسارية الحرب الأهلية لتؤسس جيبا للحكم الذاتي.
وتقول الصحيفة إن قرار ترامب المفاجئ بسحب القوات الأمريكية من شمال شرقي سوريا أثار مخاوف المسؤولين الأمنيين والعسكريين من أن الهجوم التركي على المنطقة قد يفتح الباب أمام عودة تنظيم الدولة الإسلامية، لأن القوات الكردية المتحالفة مع الولايات المتحدة والتي يُعهد لها في الوقت الحالي بمهمة تمشيط المنطقة من مسلحي التنظيم، قالت إنه حال حدوث هجوم تركي على المنطقة، فإنها ستتفرغ لصد الهجمات التركية.
وننتقل إلى صحيفة التايمز، التي جاءت إحدى افتتاحياتها بعنوان "يجب التوصل لاتفاق". وتقول الصحيفة إنه تبقى 22 يوما على 31 أكتوبر/تشرين الاول، موعد خروج بريطانيا من الاتحاد الأوروبي، والوقت يوشك على النفاد للاستعداد للخروج.
وتقول الصحيفة إنه من الحكمة أن تخرج بريطانيا من الاتحاد الأوروبي باتفاق، ولكن الخروج دون اتفاق والمزيد من التأجيل يبدوان هما الخيار الأكثر ترجيحا، حيث اتجه الطرفان بعيدا عن التسويات والقبول بالتنازلات. وفي محادثة هاتفية بين رئيس الوزراء البريطاني بوريس جونسون والمستشارة الألمانية أنغيلا ميركل، أعربت ميركل عن رأيها أن التوصل لاتفاق "غير مرجح بصورة كبيرة"
وتقول الصحيفة إن الجانبين الأوروبي والبريطاني يجب أن يبتعدا عن الهاوية ويجب أن تبذل كل الجهود الممكنة في الأسابيع الثلاثة القادمة للتوصل لاتفاق، بدلا من تبادل الشعارات والاتهامات عن الطرف الملوم في حال عدم التوصل لاتفاق.

كانت عاصمة النبطيين في البتراء في الأردن

وتضيف: "نعرف الكثير عن الفترة بين الألف الأولى والثالثة قبل الميلاد، نعرف الكثير عن مصر القديمة وميزوبوتاميا (بلاد الرافدين)، وبالمقارنة فإننا لا نعرف سوى القليل عن شبه الجزيرة العربية في التاريخ القديم، فكيف ستؤثر اكتشافاتنا على فهمنا للتاريخ القديم، لا نعرف بعد، ولكن من المرجح أنها ستعيد تشكيل رؤية العالم في التاريخ القديم".
قضت فوت سنوات طويلة تعمل في البتراء، المدينة القديمة في الأردن والتي مازالت تمثل أشهر أثر خلفته الحضارة النبطية. وتقول إن المسح الجوي مهم لاكتشاف المواقع غير التقليدية الذي قد يتطلب الأمر سنوات طويلة لاكتشافها.
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ومضت تقول :"إن التكنولوجيا توفر الآن رؤية شاملة يمكن الاعتماد عليها، فلم يحدث شيء من هذا القبيل وعلى هذا النطاق في ما مضى".
وكانت بعثة فرنسية قد اكتشفت سابقاً شبكة طرق لتجارة البخور غربي السعودية تمر عبر صحراء العلا، وتريد ربيكا فوت أن تبني على هذه المعلومات، وأن تعرف أكثر عن دور المياه في ازدهار المنطقة.
وعلقت قائلة: "يمكننا أن نخمن أنه كان لديهم اقتصاد زراعي ناجح، ولكن هل كانت هناك ضرائب على البخور؟ وكيف أداروا مواردهم المائية؟".
وعندما تبدأ الدراسات الهيدرولوجية ترد الإجابات، والتي يعود الفضل فيها جزئيا للفريق الجوي الذي يساعد في تحديد مواقع بعينها.
وقام فريق التنقيب الجوي (الذي يحلل الصور الجوية) بقيادة جيمي كوارترمين، من جامعة أوكسفورد البريطانية، بتغطية نصف المواقع المستهدفة وعددها 11500 موقعاً بطائرات خفيفة مزودة بكاميرات متخصصة تحلق على ارتفاع يتراوح بين ألفين وثلاثة آلاف قدم. ويجرى مثل هذا العمل عادة لضمان عدم إشادة أبنية في المستقبل قرب المواقع الأثرية، ويعرف بالمسح الوقائي.
ويقول كوارترمين: "تعلمنا من أخطاء الماضي التي ارتكبتها دول أخرى، ونحاول تجنبها هنا للحيلولة دون وقوع أضرار".
وتقدم هذه الدراسة الاستطلاعية إجابات للمتخصصين في مجالات مثل فن نحت الصخور. "فمنذ خمس سنوات لم يكن الجي بي إس دقيقا بما يكفي، واليوم نستخدم وسائل متعددة للتصوير الفوتوغرافي، بما فيها الطائرات المسيرة، والكاميرات المعلقة أسفل الطائرات الخفيفة، وأحدث تكنولوجيا التصوير الجوي"حسب جيمي كوارترمين.
يذكر أن إنتاج صورة معدلة كل ثانيتين أو ثلاثة يقدم آلاف الصور التي تقيس الأبعاد الحقيقية والتي تمثل كنزا للطبوغرافيين. ويقوم المتخصصون بمزج هذه الصور بدرجة وضوح عالية تكشف أدق تفاصيل المشهد.
وتوضع الكاميرات بزاوية 45 درجة مئوية تحت الطائرات، وقد تم اكتشاف مواقع دفن ومشاهد جنائزية من العصر البرونزي حتى الآن.
"هذا يسمح لنا برؤية المشهد بشكل واضح أفقيا ورأسيا أيضا. مما يمكننا من الكشف عن بعض مواقع فن النحت الحجري"، بحسب جيمي كوارترمين.
وفي المرحلة النهائية من الدراسة سيتم إرسال فريق متخصص، مثل خبيرة فن النحت على الصخور ماريا غواغنين التي قضت بالفعل خمس سنوات في شمال غرب الجزيرة العربية، وقد أعربت عن انبهارها بقاعدة البيانات الكبيرة التي صارت متاحة عن كل الفترات.
وأوضحت غواغنين قائلة: "لأول مرة نتطلع للمشهد الأثري بكل جوانبه، وتعتمد معلوماتنا على توزيع أنواع الحيوانات في فترة ما قبل التاريخ وعلى مواقع الدراسة الأثرية من الجو ومواقع العصر الحجري".
وتابعت قائلة: "كان يعتقد أن العديد الحيوانات لا أثر لها في شبه الجزيرة العربية، ولكن لوحات الفن الحجري أظهرت العكس".
فوجود أنواع من الثدييات المرسومة على الصخور في العلا يوفر معلومات لها علاقة بانتشارها وطريقة حياتها والغذاء الذي كان متاحا لها في مشاهد ما قبل التاريخ.
كما تساعد رسوم الحيوانات أيضا في تحديد التواريخ. فقد كان من المستبعد مثلا وجود فرسان يمتطون الخيول أو الجمال قبل 1200 عام.
وكانت الماشية المدجنة من خراف وماعز قد عرفتها الجزيرة العربية بين عامي 6800 و6200 قبل الميلاد. وكانت بلاد الشام قد عرفتها أولاً ومنها انتقلت إلى الجزيرة العربية فهذه إحدى وسائل تحديد التاريخ حيث من غير المرجح وجود حيوانات في هذه المنطقة في هذا التاريخ.
ومن المرجح أن تؤدي المعلومات الغزيرة التي سيحصل عليها فريق العلا الدولي إلى الكشف عن الطرق التي ربطت بين البتراء ومدائن صالح.
وكان عبد الرحمن السحيباني قد قام بعمليات حفر لبضع سنوات في دادان، وهو موقع يشير إلى وجود حضارة سابقة للنبطيين. وقال :"إن الأمر قد يستغرق أجيالا لتظهر نتيجة هذا العمل، وما يجعل هذه العمل مهما على الصعيد العالمي أنه لا يقتصر على مدائن صالح والبتراء فقط بل يشمل الحضارات السابقة غير المعروفة لنا".
ومن بين المهام المناطة بعبد الرحمن تدريب طلبة جامعة الملك سعود في موقع بالعلا. ويقول :"إنهم يتعلمون في إطار أحد أهم دراسات التنقيب الاستكشافي، فطلبة اليوم قد يتوصلون إلى اكتشافات لا يمكننا تخيلها".